समान नागरिक संहिता (अंग्रेज़ी: Uniform Civil Code, यूनिफॉर्म सिविल कोड; UCC) एक सामाजिक मामलों से संबंधित कानून होता है जो सभी पंथ के लोगों के लिये विवाह, तलाक, विरासत व बच्चा गोद लेने आदि में समान रूप से लागू होता है। [1] दूसरे शब्दों में, अलग-अलग पंथों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही 'समान नागरिक संहिता' की मूल भावना है।[2] यह किसी भी पंथ जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है।
रिपोर्ट - नवीन गौतम लक्ष्मण सिंह
हापुड़। बार एसोसिएशन हापुड़ के अधिवक्ताओं की एक बैठक शनिवार को एडवोकेट अनिल आजाद की अध्यक्षता में संपन्न हुई। इस दौरान बैठक में केंद्र सरकार द्वारा देश में लाए जा रहे समान नागरिक संहिता कानून पर विचार विमर्श किया गया।
एडवोकेट अनिल आजाद ने कहा कि आज देश में समान नागरिक संहिता कानून की आवश्यकता है, इसके लागू किए जाने का वह समर्थन करते है। केंद्र सरकार द्वारा इस कानून को लाने के लिए राजनीतिक फायदे पर ध्यान देने के बजाय इस कानून को लागू करने से पूर्व सभी धर्मों की परंपराओं और मान्यताओं को ध्यान में रखकर इसे देश हित में लागू करें तो यह एक अच्छा कदम होगा। उन्होंने कहा कि हमारे देश के संविधान की आत्मा धर्मनिरपेक्षता के आधार में बसी हुई है। इसलिए वह देश की महामहिम राष्ट्रपति महोदया से मांग करता हूं कि उन्हें इस कानून को लागू करने से पहले संविधान की आत्मा धर्मनिरपेक्षता को ध्यान में रखना चाहिए।
उन्होंने कहा की यह बात सही है कि जब देश एक तो देश में सभी के कानून भी एक होना चाहिए। लेकिन देश में रहने वाले आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर इसका नकारात्मक प्रभाव न पड़े, सरकार को इसका भी ध्यान रखना होगा।
इस अवसर पर चौधरी डीपी सिंह, सुखपाल सिंह, अभिषेक आजाद, रविंद्र सिंह, प्रमोद चौधरी, प्रशांत शर्मा, उषा रानी, रमा प्रोविंस, राहुल मावी, सत ईश्वर दयाल त्यागी आदि मौजूद रहे।
भारतीय संविधान और समान नागरिक संहिता
समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग ४ के अनुच्छेद ४४ में है। इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा।[10] सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है।[11][12]
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ४२वें संशोधन के माध्यम से 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द को प्रविष्ट किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है, लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है।
मूल अधिकारों में 'विधि के शासन' की अवधारणा विद्यमान है, जिसके अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये। लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है।
'सामासिक संस्कृति' के सम्मान के नाम पर किसी वर्ग की राजनीतिक समानता का हनन करना संविधान के साथ-साथ संस्कृति और समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूलभूत नियमों के तहत महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है लेकिन समय के साथ इन नियमों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर असमानता उत्पन्न कर दी जाती है।
समान नागरिक संहिता से सम्भावित लाभ
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अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता बढ़ेगी। जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा। ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था। समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। अभी तो कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।
धार्मिक रुढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये साथ ही 'विधि के समक्ष समता' की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये । वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है, इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये अहितकर है। सर्वोच्च न्यायालय ने संपत्ति पर समान अधिकार और मंदिर प्रवेश के समान अधिकार जैसे न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समाज में समता हेतु उल्लेखनीय प्रयास किया है इसलिये सरकार तथा न्यायालय को समान नागरिक संहिता को लागू करने के समग्र एवं गंभीर प्रयास करने चाहिये।