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ये नाइत्तेफाकियां : सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से आवारा कुत्तों की समस्या पर बहस तेज़

लेखक : प्रवीन शर्मा
हापुड़। हम सभी को हृदय की गहराइयों से सर्वोच्च्य न्यायालय का धन्यवाद करना चाहिए जिसने आवारा कुत्तों को लेकर समाज में कम से कम एक विमर्श तो प्रारंभ कराया । बेशक दिल्ली एनसीआर के सभी आवारा कुत्तों को आश्रय स्थलों में भेजने संबंधी उसका आदेश अभी प्रभावी नहीं हुआ है मगर इतनी उम्मीद तो बंधी ही है कि अब इस दिशा में देर सवेर गंभीर प्रयास होने लगभग तय ही हैं। मुझे नहीं मालूम कि मैं कुत्ता प्रेमी हूं अथवा नहीं मगर मुझे इतना पता है कि पिछले 35 सालों से मेरे द्वारा या मेरे सगे संबंधियों द्वारा अपने घर में एक न एक कुत्ता अवश्य पाला गया है। मैं नहीं जानता कि ये आवारा कुत्ते मुझे कितने नापसंद हैं मगर मुझे यह जरूर मालूम है कि उनके भय से पिछले लगभग पांच सालों से अपने रेलवे रोड पर ही सुबह मे रात मे कुछ विशेष मोहल्ले जैसे श्रीनगर पटेलनगर शिवपुरी आदि मे पेदल या दो पहिया वाहन से आने जाने मे बचता हु। मैं यह भी बता देना जरूरी समझता हूं कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा जब मेरे घर से गली के कुत्तों को खाना न दिया गया हो और शायद ऐसा भी कोई दिन मुझे याद नहीं, जिस दिन अपने घर के आगे उनके द्वारा की गई गंदगी ने मुझे गुस्सा न दिलाया हो । ये तमाम बातें आपसे साझा करने का अभिप्राय केवल यही है कि मैं यह स्पष्ट करने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं न तो अव्वल दर्जे का कुत्ता प्रेमी हूँ और न ही उनके खिलाफ किसी सख्त कार्रवाई के लिए मैं मरा जा रहा हूं । शायद यह स्पष्टीकरण देने से ही कुत्ता प्रेमी और कुत्तों के दुश्मन मेरी बातों को एक तरफा मानने से बचेंगे । 

कुत्ता प्रेमियों की इन तमाम बातों से कोई इनकार नहीं किया जा सकता कि कुत्ते इंसान के साथ पिछले तीस से चालीस हजार सालों से हैं। अपने लाभ के लिए ही हम इंसानों ने उसे पालतू बनाया था और अब एक दम से अचानक यूं उससे संबंध विच्छेद नहीं कर सकते । युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग में एक कुत्ते के जाने वाली कहानी भी हम सबने पढ़ी है और कुत्ते की वफादारी और घरों से प्रतिदिन निकलने वाले बचे खुचे खाने के निपटान के तर्क से भी किसी को कोई इनकार नहीं है । मगर फिर भी कोई तो ऐसी बात होगी कि इतनी सिफतों के बावजूद आज भी हम इंसान इन कुत्तों को पूरी तरह से अपना नहीं सके । क्या इसका एक मात्र कारण आवारा कुत्तों की तेजी से बढ़ती तादाद नहीं है ? एक सर्वेक्षण के अनुसार फिलवक्त देश में सवा पांच करोड़ आवारा कुत्ते हैं और अस्पतालों से पता चलता है कि रोजाना लगभग दस हजार लोगों को ये काटते हैं। एक अन्य आंकड़ा कहता है कि साल 2022 से 2024 के बीच डेढ़ करोड़ लोगों को इन कुत्तों ने काटा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो भारत में हर साल 18 से 20 हजार लोग कुत्तों के काटते से मरते हैं। दुनिया भर में रेबीज से मरने वालों में 36 फीसदी हम भारतीय ही होते हैं। क्या यह आंकड़े सामान्य हैं ? कुत्तों के प्रति प्रेम की तमाम दलीलों को स्वीकार कर लेने के बावजूद यह सवाल तो मन में आता ही है कि ये इंसानी आबादियां हमने अपने लिए बनाई हैं या आवारा कुत्तों के लिए ? क्या यह सत्य नहीं कि ये कुत्ते, बंदर और कबूतर आज हमारी आबादियों के लिए एक बड़ी समस्या बन चुके हैं। यदि सर्वोच्च्य न्यायालय ऐसा कहता कि सभी आवारा कुत्तों को मार दिया जाए तो यकीनन उसका विरोध होता मगर उन्हें आश्रय गृहों में भेजने के आदेश में तो कोई बुराई नहीं है। यह ठीक है कि दिल्ली एनसीआर में इतनी बड़ी संख्या में कुत्तों को रखने के लिए आश्रय स्थल नहीं हैं, मगर देर सवेर तैयार तो किए ही जा सकते हैं। इतिहास गवाह है कि अदालती डंडा सिर पर हो तो सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। और नहीं तो कम से कम कुत्तों की नसबंदी की अपनी क्षमता ही बढ़ा सकता है जो सालाना केवल साठ हजार की है जबकि सर्वोच्च्य न्यायालय के अनुसार इसे सालाना साढ़े चार लाख होनी चाहिए । भूखे प्यासे आवारा कुत्तों को देखकर यदि किसी का दिल पिघलता है तो यह स्वाभाविक ही है मगर किसी कुत्ते के काटने से इंसान की मौत पर भी तो ऐसे सहृदय व्यक्ति की आंखों में आंसू आने चाहिए । किसी मासूम बच्चे अथवा वृद्ध को कुत्तों के झुण्ड ने नोच नोच कर मार डाला, ऐसी खबरें पढ़कर कुत्ता प्रेमी भी तो भयभीत होने चाहिए। मैं यकीन से कह सकता हूं कि कुत्तों से परेशान लोग उनसे नफरत नहीं करते अपितु भयभीत होते हैं। उधर, कुत्ता प्रेमी भी इंसान के दुश्मन नहीं हैं। ये सब जो नाइत्तेफाकियां हैं, इसका कारण केवल और केवल कुत्तों की संख्या और इंसानी दुनिया के बीच संतुलन का अभाव ही है। यदि सर्वोच्च्य न्यायालय अब इन दोनों के बीच कोई संतुलन बनाना चाह रहा है तो मेरे खयाल से हरसूरत उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए।

सार - सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली-एनसीआर के आवारा कुत्तों को आश्रय स्थलों में भेजने के आदेश ने समाज में एक नई बहस छेड़ दी है। इस आदेश को लेकर जहाँ एक ओर लोग राहत महसूस कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पशु अधिकार कार्यकर्ता और कुत्ता-प्रेमी इस पर अपनी प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं।
यह आदेश अभी पूरी तरह से लागू नहीं हुआ है, लेकिन इसने एक उम्मीद जगाई है कि इस गंभीर समस्या का कोई ठोस समाधान जल्द ही निकलेगा। लेखक प्रवीण शर्मा ने इस विषय पर एक लेख लिखकर विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें उन्होंने न केवल आवारा कुत्तों से जुड़ी समस्याओं को उठाया है, बल्कि कुत्ता-प्रेमियों और आम जनता के बीच की "नाइत्तेफाकियों" को भी समझाया है।

बढ़ते आँकड़े, बढ़ता डर
लेखक ने अपने लेख में कुछ चौंकाने वाले आँकड़े पेश किए हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में 5.25 करोड़ से अधिक आवारा कुत्ते हैं। ये कुत्ते हर दिन लगभग 10,000 लोगों को काटते हैं, और साल 2022 से 2024 के बीच 1.5 करोड़ लोगों को इनके काटने का सामना करना पड़ा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आँकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल 18 से 20 हजार लोग रेबीज से मरते हैं, जो दुनिया भर में रेबीज से होने वाली कुल मौतों का 36% है।
ये आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी एक बड़ी समस्या बन चुकी है।

समाधान की ओर एक कदम
सर्वोच्च न्यायालय ने आवारा कुत्तों को मारने का आदेश नहीं दिया, बल्कि उन्हें आश्रय गृहों में भेजने का सुझाव दिया है। लेखक प्रवीण शर्मा इस कदम का स्वागत करते हैं। उनका मानना है कि सरकारें अदालत के आदेश पर आश्रय स्थल तैयार कर सकती हैं।
इसके अलावा, नसबंदी की क्षमता बढ़ाना भी एक महत्वपूर्ण सुझाव है। फिलहाल सालाना केवल 60,000 कुत्तों की नसबंदी होती है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस संख्या को बढ़ाकर 4.5 लाख करने का सुझाव दिया है।

प्रेम और डर के बीच संतुलन
लेखक ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि कुत्तों से परेशान लोग उनसे नफरत नहीं करते, बल्कि उनके झुंड से डरते हैं। वहीं, कुत्ता-प्रेमी भी इनसान के दुश्मन नहीं हैं। दोनों पक्षों के बीच की ये नाइत्तेफाकियां केवल कुत्तों की संख्या और इनसानों के बीच संतुलन की कमी के कारण हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम दोनों पक्षों की चिंताओं को समझते हुए एक संतुलन बनाने की दिशा में उठाया गया एक सकारात्मक कदम है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।